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स्वाधीनता।


था। यह बात सभी को मालूम है। उसका नाम था "स्कूलौन"। इस पन्थ के पण्डितों की पद्धति भी ऐसी ही थी। वे भी प्लेटो ही की तरह वादविवाद करते थे। उससे यह मालूम हो जाता था कि उन तत्त्ववेत्ताओं के चले अपने मत की सब बातों को अच्छी तरह समझ गये हैं या नहीं; प्रतिपक्षियों के आक्षेप भी उनके ध्यान में आ गये हैं या नहीं; और अपने मत का मण्डन और विरोधियोंके मत का खण्डन किस तरह करना चाहिए, यह भी सीख गये हैं या नहीं। इस पन्थ की तर्कनापद्धति में एक बहुत बड़ा दोष यह था कि इसके अनुयायी जिस विषय पर वादविवाद करते थे उस विषय का आधार वे धर्मशास्त्र को मानते थे, तर्कशास्त्र को नहीं। सब बातों के आदि कारण, अर्थात् मूल हेतु, को वे धर्मशास्त्र में घटाते थे; तर्कना द्वारा उस हेतु, की योग्यता या अयोग्यता को सिद्ध करने की चेष्टा न करते थे। वाद-विवाद करने की साक्रेटिस की जिस तरकीब ने उसके चेलों का मन इतना निग्रहशील और उनकी बुद्धि इतनी विकसित कर दी उसके मुकाबले में मध्ययुग की वादविवाद करने की तरकीब बहुत तुच्छ थी। उसके सामने वह कुछ थी ही नहीं। परन्तु इन दोनों तरह के वाद-विवादों से आज कल के आदमियों को जितना फायदा पहुंचा है उतनेको वे खुशी से कबूल नहीं करते। और आज कल जिस तरीके से शिक्षा दी जाती है उसमें इन दोनों पुराने तरीकों में से एकका भी कहीं पता नहीं लगता। इस समय की शिक्षा-प्रणाली ऐसी है कि सारा ज्ञान शिक्षक और पुस्तकों ही के द्वारा प्राप्त होता है। इस दशा में लोग जो कुछ सीखते हैं उसे बहुत करके वे तोते की तरह रट कर सीखते हैं। सौभाग्यवश यदि कोई इस रटना-रहस्य की कसरत से बच भी गया तो भी उसे दोनों पक्षों की दलीलें सुनने को नहीं मिलती। इससे मामूली आदमियों की तो बात ही नहीं, तत्त्ववेत्ताओं तक को दोनों पक्षों का वहुधा ज्ञान नहीं होता। आज कल हर आदमी अपने मत को मजबूती पहुंचाने या प्रमाणपूर्वक सिद्ध करने के लिए अपने विरोधी


  • इस पन्थ के पण्डित, अरिस्टाटल (अरस्तू) नामक ग्रीस के तत्त्ववेत्ता के अनुयायी थे। उसीके तरीके को आदर्श मानकर वे तर्क करते थे और आगा, परमात्मा, मन, इंद्रिय और पुनर्जन्म आदि विषयों पर बाल की खाल खींचा करते थे। परन्तु उनके इस वादप्रतिवाद से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।