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दूसरा अध्याय।


रहना चाहिए, और आदमी को अपना बर्ताव कैसा रखना चाहिए। इन बातों को सब जानते हैं, सब मानते हैं, सब मुँह से एक नहीं-अनेक बार-कहते हैं और स्वयंसिद्ध सिद्धान्तों के समान समझते हैं। परन्तु इनका ठीक ठीक अर्थ बहुत आदमियों की समझ से तब गाता है जब उन पर कोई विपत्ति पड़ती है, अर्थात् इनमें से किसी बातका उलंघन करने से जब उन्हें ठोकर लगती है। उसके पहले इनका मतलब बहुत कम आदमियों के ध्यान में आता है। यह बात बहुधा देखने में आई है कि जब किसी आदमी पर कोई आपदा आती है या जब किसीको किसी विषय में सहसा निराश होना पड़ता है, तब उसे एक आध ससल, अर्थात् कहावत, याद आती है। वह मलल चाहे जन्स भर उसके मज में चकर लगाती रही हो, पर उसका ठीक अर्थ उसे तसी समझ पड़ता है जब, उसके अनुसार बर्ताव न करने के कारण, उसे अफसोल होता है। यदि उसे उसका मतलब पहले ही समझ गया होता तो वह उस विपत्ति में कदापि न फंसता-अतएव उसे अफलोस भी न होता। इस तरह के अनर्थों का कारण विवेचना का अभाव ही नहीं है; विचार, विवेचना और वाद-प्रतिवाद का अभ्यास न रहने ही से इस तरह की आपदाओं में लोग नहीं फंसते। इसके और भी कारण अवश्य हैं। क्योंकि दुनिया में ऐसी बहुतली बातें हैं जिनका अर्थ बिना प्रत्यक्ष अनुभव के नहीं समझ पड़ता; अर्थात् जब तक आदमी को तजरुबा नहीं होता तब तक उन बातों का मतलब उसके ध्यान में ठीक ठीक नहीं आता। परन्तु इस में भी कोई सन्देह नहीं कि जिन आदमियों को ऐसी बातों का तजरबा है उनके मुँह ले उन बातों का सप्रमाण विवेचन सुनने से उनके अनुकूल और प्रतिकुल जो कुछ कहा जा सकता है उसे जान लेने से-उनका अर्थ पहले से अधिक ध्यान में आ जाता है और दिल पर उस अर्थ का असर भी पहले से अधिक होता है। जब किसी बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता तब लोग उस पर विचार करना छोड़ देते हैं, तब उसके विवेचन की वे कोई जरूरत नहीं समझते। यह बहुत बुरी आदत है। यह ऐसा बुरा स्वभाव है कि जितनी गलतियां आदमी के हाथ से होती हैं। उनमें से आधी इसी सर्वनाशी स्वभाव के कारण होती हैं। इस समय के एक ग्रन्थकार ने इस अवस्था-इस स्थिति का नाम रक्खा है "निश्चित मत की गाढ़ निद्रा"। उसकी यह उक्ति बहुत ही यथार्थ है। उसने यह बहुत ही ठीक कहा है।