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ब्राह्मण।

मनमें आही नहीं सकती कि हम जल और स्थल की सेना कम करके राजकीय शक्ति में परोसी के निकट छोटा बनना भले ही स्वीकार कर लेंगे, परन्तु समाज के भीतर सुख-सन्तोष और ज्ञान-धर्म का अधिकाधिक प्रचार अवश्य करेंगे। चढ़ा ऊपरी या लागडाँट के आकर्षण में जो जोश उत्पन्न होता है वह सोचने विचारने का अवकाश नहीं देता––बराबर हाँ के चला जाता है। यूरोप इसी अंधाधुंध गति से चलने को ही उन्नति कहता है। हम लोगों ने भी इसी को उन्नाते कहना सीख लिया है।

किन्तु जो चाल पग पग पर थमने के द्वारा नियमित नहीं उसको उन्नति नहीं कह सकते। जिस छन्द में विश्राम नहीं वह छन्द ही नहीं हो सकता। समाज के पैरों के पास भले ही सागर लहरें मारा करे––फेन फेका करे, मगर समाज के सर्वोच्च शिखर पर शान्ति और स्थिति का सनातन आदर्श नित्य विराजमान रहना चाहिए।

उस आदर्श को कौन लोग अटल और सुरक्षित रख सकते हैं? इसका उत्तर यही है कि जो लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी से स्वार्थ की पर्वा नहीं रखते, पैसा पास न होना ही जिनकी प्रतिष्ठा है, मङ्गल के–पुण्य के–कामों को जो लोग बाजारू सौदा नहीं समझते, विशुद्ध ज्ञान और उन्नत धर्म में जिनका चित्त रमा रहता है, और अन्य सब छोड़कर समाज के सर्वोच्च आदर्श की रक्षा करने के महान् भाव ने जिनको पवित्र और पूजनीय बनाया है वे ही उस आदर्श को अटल और सुरक्षित रख सकते हैं।

यूरोप में भी, विश्राम रहित कर्म की हलचल में, बीच बीच में एक दो ऐसे विचारशील बुद्धिमान् देख पड़ते हैं जो धुमनी के उन्मत नशे में स्थिति के आदर्श, लक्ष्य के आदर्श और उन्नति या परिणति के आदर्श को पकते हैं। किन दो घड़ी खड़े होकर उनकी सुनेगा कौन? सम्मिालेत सुवृहत्