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स्वदेश–

किन्तु इस सभ्यता के भीतर भी एक ऐसी शक्ति या एक ऐसा भाव है जो सब पर कर्तृत्व कर रहा है––हुकूमत चला रहा है। कोई भी सभ्यता बिना आकार-प्रकार की नहीं हो सकती। इसीसे कहते हैं कि इसके मूल में भी अवश्य ऐसी एक शक्ति है जो इसके सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को चला रही है। उस शक्ति के बढ़ने-घटने पर ही इस सभ्यता की उन्नति या विनाश निर्भर है। वह शक्ति क्या है? इस सभ्यता की अनेक विचित्र चेष्टा और स्वतन्त्रता के भीतर वह एक-शासन कहाँ पर है?

यूरोपियन सभ्यता को हरएक देश में अलग अलग खण्ड खण्ड करके देखने से और सभी बातों में उसकी स्वतन्त्रता या विभिन्नता देख पड़ती है; केवल एक ही मामले में उसका एकमुखी भाव या एकता पाई जाती है। वह मामला है राष्ट्र के स्वार्थ का––राष्ट्र के हानि लाभ का।

चाहे इंग्लेंड में हो, चाहे फ्राँस में; और सभी मामलों में सर्व साधारण एकमत शायद नहीं हो सकते––एक दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते। मगर इसमें कहीं भी, कुछ भी, मतभेद न होगा कि अपने राष्ट्र के स्वार्थ की रक्षा जी जान से करनी चाहिए।यूरोपियन लोग इसी जगह पर एकाग्र हैं। यहीं पर वे प्रबल हैं, निष्ठुर हैं। राष्ट्रीय स्वार्थ को धक्का पहुँचते ही सारा देश एक हो जाता है––भिड़ने के लिए, प्रतीकार करने के लिए, कमर कसकर खड़ा हो जाता है। जाति की रक्षा करने का संस्कार जैसे हमारी अस्थि मज्जा में बस गया है वैसे ही राष्ट्र के स्वार्थ की रक्षा करना यूरोप-निवासी सर्व साधारण का जातीय भाव हो गया है।

यह निर्णय करना कठिन है कि इतिहास के किस निगूढ़ नियम से किस देश की सभ्यता ने किस भाव को ग्रहण किया; किन्तु यह अच्छी-तरह से निश्चित है कि जब वह (सभ्यता का) भाव अपने से ऊँचे