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स्वदेश–

और दुबिधा दूर होगी। दूसरों से उधार लेकर उन फूल-पत्तों से पेड़ को सजाना ठीक नहीं। वह शोभा-वह नवीनता-आज है, कल जाती रहेगी। उस नवीनता की अस्थिरता और विनाश को कोई रोक नहीं सकता, हम दूसरी जगह से नवीन बल और नवीन सुन्दरता उधार लेकर अपने को सजाना चाहते हैं। किन्तु दो घड़ी के बाद ही वह नीचता की माला के समान हमारे मस्तक की हँसी करावेगी। धीरे धीरे उसमें से फूल-पंखड़ी झड़ पड़ेगी––केवल बन्धन की रस्सी, हमारे गले में, रह जायगी। विदेश का साजबाज और हावभाव हमारे शरीर पर देखते ही देखते मलिन––शोभाहीन हो जाता है। विदेश की शिक्षा और रीति-नीति हमारे मन में देखते ही देखते निर्जीव और निष्फल हो जाती है। इसका कारण केवल यही है कि उसके पीछे बहुत दिनों का इतिहास नहीं है। वह असंलग्न और असङ्गत है; उसकी जड़ उखड़ी हुई है।

आज इस नये वर्ष के दिन हम भारतवर्ष की चिरपुरातन सामग्री से ही, अपने में नवीनता प्राप्त करेंगे। सन्ध्या को जब विश्राम की घण्टी बजेगी, उस समय भी यह नवीनता सूखी माला की तरह झड़ नहीं जायगी। उस समय हम इस अम्लान गौरव-माला को अपने पुत्र के गले में आशीर्वादपूर्वक डालकर, उसको निर्भय चित्त और सरल सबल हृदय से विजय की राह में भेजेंगे! निश्चय जानो, जय होगी––भारतवर्ष ही की जय होगी! जो भारत प्राचीन है, जो ढका हुआ है, जो विराट् है, जो उदार है, जो चुप है उसी भारत की जय होगी! और हम, जो अँगरेजी बोलते हैं, अविश्वास करते हैं, झूठ बोलते हैं, डींग मारते हैं सो हरसाल उसी तरह समय सागर में लीन होते जायँगे जिस तरह सागर की लहरें उठकर उसी में लीन हो जाती हैं। किन्तु उससे निस्तब्ध सनातन भारतवर्ष की कुछ हानि नहीं होगी। वह भस्मा-