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स्वदेश।

इस कारण वह आलोचना छोड़कर यह स्वीकार करना ही होगा कि सन्तोष, संशय, शान्ति और क्षमा––ये सभी सर्वोच्च सभ्यता के अङ्ग हैं। इनमें चढ़ाऊपरी-रूपी चकमक पत्थर की रगड़ का शब्द और चिनगारियों की वर्षा नहीं है। इनमें हीरे की शीतल शान्त ज्योति है। उस रगड़ के शब्द और चिनगारियों को इस स्थिर सत्य ज्योति से बढ़कर कीमती समझना कोरा जंगलीपन है। यूरोपियन सभ्यता के विश्वविद्यालय से भी यदि ऐसा जंगलीपन उत्पन्न हो तो भी वह जंगलीपन ही है।

हमारी प्रकृति के एकदम एकान्त कोने में जो अमर भारतवर्ष विराजमान है उसे आज नये वर्ष के दिन मैं प्रणाम कर आया। मैंने देखा कि वह फललोलुप कर्म की अनन्त ताड़ना से मुक्त होकर शान्ति के आसन पर ध्यानमग्न अवस्था में बैठा है। वह अनन्त अविराम भीड़-भाड़ की चक्की में पड़ा पिस नहीं रहा है। वह अपने अकेलेपन में ही मग्न बैठा है। वह चढ़ाऊपरी की गहरी रगड़ और ईर्षा की कारिख से दूर रहकर अपनी अचल मर्यादा के घेरे में विराजमान हैं। इस कर्मवासना, जनसमूह की रगड़ झगड़ और औरों से बढ़ जाने के जोश से अलग रहने ने ही सारे भारतवर्ष को ब्रह्म के मार्ग में––भय, शोक और मृत्यु से रहित परम मुक्ति के मार्ग में––पहुँचाया है। यूरोप में जिसे "फ्रीडम" कहते हैं वह मुक्ति इस मुक्ति के सामने बहुत ही तुच्छ है। वह मुक्ति चंचल, दुर्बल और कायर है। वह स्पर्द्धापूर्ण और निठुर है। यह दूसरे के बारे में अन्धी है। वह धर्म को भी अपने समान नहीं समझती। वह सत्य को भी अपना दास बनाकर दूषित करना चाहती है। वह केवल दूसरों पर चोट करती रहती है, और इसी कारण औरों की चोट-के डर से दिनरात वर्दी चपरास और अनशस्त्र से लदी हुई बैठी रहती है। वह, अपनी रक्षा के लिए, अपने पक्ष के अधिकांश लोगों को