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स्वदेश–

है समय का अवकाश और न रहता है सोचने विचारने का अव काश। इस प्रकार अपने मन को ही अपने पास रहने का बिलकुल अभ्यास नहीं रहता। फल यह होता है कि काम से ज़रा छुट्टी पाते ही शराब पीकर, ऐश और खेल तमाशों में मस्त होकर जबरदस्ती अकेलेपन के हाथ से छुटकारा पाने की चेष्टा की जाती है। चुप चाप रहने की, निस्तब्ध भाव से रहने की, आनन्द में रहने की, शक्ति फिर नहीं रहती।

जो लोग मेहनत-मजदूरी करते हैं उनकी यह दशा है। इनके सिवा जो लोग भोग करने वाले अमीर हैं वे भी भोग की नित-नई उत्तेजना में चूर हैं। वे निमन्त्रण, खेल, नाच, घुडदौड़, शिकार और सफर की आँधी में सूखे पत्तों की तरह चक्कर खाया करते हैं। हिंडोले में बैठा हुआ आदमी, उसके चक्कर में, अपने को या सारे जगत् को ठीक-ठीक नहीं देख पाता––उसे सब धुंधला दिखाई पड़ता है। अगर दम भर के लिए हिंडोले का घूमना थम जाता है तो वह घड़ी भर का अपने को देखना और विशाल विश्व से मिलने का लाभ उसे असह्य जान पड़ता है। यही दशा यूरोप के अमीरों की है।

किन्तु भारतवर्ष ने भोग के घनेपन को भाईबन्दों और पास-परोसियों में बाँटकर हल्का कर दिया है और कामकाज की पेचीली उलझन को सुलझा-कर उसे आदमी-आदमी में बाँट दिया है––अर्थात् जो जिस योग्य आदमी है उसको वह काम सौंप दिया है। ऐसा करने से यह होता है कि भोग, कामकाज और विचार करते रहने पर भी हरएक को मनुष्यत्व की चर्चा करने का यथेष्ट अवकाश बना रहता है। हमारे यहाँ का बेपारी भी मन लगाकर कथा सुनता है और कामकाज करता है, और कारीगर या मेहनत-मजदूरी करनेवाला भी निश्चिन्त होकर भक्तिपूर्वक रामायण की चौपाइयाँ गाता है। यह अवकाश की अधिकता घर को, मन को और समाज को पाप की