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स्वदेश–

भविष्यत् की मरीचिकायें आकर हमको अपनी अपनी ओर आकृष्ट कर रही हैं। इन दोनों को भरोसा करने योग्य 'सत्य' न जानकर एक बार हमें यह देखना चाहिए कि हम वास्तव में किस मिट्टी पर खड़े हुए हैं।

हम एक बहुत ही जीर्ण और प्राचीन नगर में निवास करते हैं। इतना पुराना नगर है कि उसका इतिहास लुप्तप्राय हो गया है; मनुष्यों के हस्तलिखित सब स्मृतिचिह्न काई से ढक गये हैं। इसी से भ्रम होता है कि मानों यह नगर मनुष्यों के इतिहास से परे है––यह मानों अनादि 'प्रकृति की पुरानी राजधानी है। मनुष्यों के इतिहास की रेखा मिटाकर प्रकृति ने अपने श्यामवर्ण के अक्षर इसके सब अंगों में विचित्र आकार से सजा रक्खे हैं। यहाँ हजारों वर्ष की वर्षा-ऋतुएँ अपने आँसुओं के चिह्न की रेखा रख गई हैं और हजारों वर्ष की वसन्त-ऋतुएँ इसकी दीवार की हरएक दरार में अपने आने जाने की मिती हरे रंग के अङ्कों में अङ्कित कर गई हैं। एक ओर से इसे नगर कह सकते हैं तो दूसरी ओर से इसे जंगल भी कह सकते हैं। यहाँ केवल छाया और विश्राम, चिन्ता और विषाद रह सकते हैं। यहाँ झींगुरों की झनकार से गूंजते हुए जंगलों में––यहाँ विचित्र आकारवाली जटाओं से व्याप्त शाखा-प्रशाखाओं और रहस्यमय पुराने महलों की दीवारों में सैकड़ों हजारों छायाओं में काया का और कायाओं में माया का भ्रम होता है। यहाँ की इस सनातन महती छाया में सत्य और कल्पना ने भाई और बहन की तरह विरोध-रहित भाव से आश्रय पाया है। अर्थात् यहाँ प्रकृति के विश्वकार्य और मनुष्य की मानसिक सृष्टि, दोनों ने परस्पर हिलमिलकर अनेक आकार के छायाकुंजों की रचना की है। यहाँ लड़की–लड़के दिनभर खेला करते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि यह खेल है। ऐसे ही सयाने लोग रातदिन स्वप्न देखते हैं; पर