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धर्म-बोध का दृष्टान्त।


डेलीन्यूज कहता है कि रूस में यहूदियों की हत्या और कंगोमें बेलजियम के अत्याचार आदि के लिए परोसियों पर दोषारोप करना कठिन हो गया है––After all, no great power is entirely innocent of the charge of treating with barbarous harshness the alien races which are subject to its rule.

हमारे देश में जो धर्म का आदर्श है वह हृदय की चीज है––बाहरी धेरे में रखने की नहीं है। हम यदि Sanctity of life को एक बार करते हैं तो फिर पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि किसी पर इसकी एक हद नहीं बाँध लेते। भारतवर्ष एक समय मांसभोजी था––मगर आज मांस खाना उसने निषिद्ध मान लिया है। मांसाहारी जाति ने अपनको उसके स्वाद से वञ्चित करके मांस खाना एकदम छोड़ दिया है। जगत् भर में शायद स्वार्थत्यागका ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। भारतवर्ष मे देखा जाता है कि अत्यन्त गरीब आदमी भी जो कमाता है उसे दूर के सम्बन्धियों में बांट देनेसे भी नहीं हिचकता। स्वार्थकी भी एक उचित सीमा है––उचित अधिकार है, इस बातको हम लोगोने, सब तरहसे असुविधा सहकर भी, यथा सम्भव दबा रक्खा है। हमारे देशमें कहा जाता है कि युद्ध में भी धर्मकी रक्षा करनी होगी––अस्त्रहीन, भागे हुए और शरणम आये हुए शत्रुके प्राते हमार देशकं क्षात्रयांको जैसा बरताव करनेकी विधि है उसकी यूरोपमें हँसी उड़ाई जायगी। इसका कारण केवल यही है कि हम लोगाने धर्मको हृदयकी चीज बनाना चाहा था। हम लोगाके धर्मकी रचना स्वार्थ के स्वाभाकि नियमन नहीं की है। धर्मकानयमने हा स्वार्थका संयत कर रखने की चेष्टा की है। इसीसे यद्यपि हम लोग बाहरी विषयों में दुर्बल हाते हैं––यद्यपि