पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/९४

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न करके प्रत्येक दलील के मूल तक पहुँचना चाहिए। उदाहरण के तौर पर यदि कोई शब्दों में कहे कि,-"मनुष्य-जाति का अनुभव ही इसके अस्तित्त्व की पूरी साक्षी है" तो इससे कुछ नहीं हो सकता। जिस दशा में लोगों को केवल एक ही पद्धति का अनुभव हुआ है, उस दशा में यह कह देना कि दो पद्धतियों में से अमुक अच्छी है, और अनुभव के अन्त में लोगों ने यह निर्णय किया है-यह बात ज़रा भी उचित नहीं मालूम होती। कदाचित् कोई यह प्रश्न करेगा कि स्त्री पुरुषों की समानता प्रतिपादन करने वाला मत केवल कल्पना पर बनाया गया है, तो उसके विरुद्ध मत की दीवार भी केवल कल्पना पर ही खड़ी की गई है, इसे ध्यान में रखना चाहिए। प्रत्यक्ष अनुभव से केवल इतनी ही बात सिद्ध होती है कि इस पद्धति की छाया में रह कर मनुष्य-जाति अस्तित्त्व में बनी रह सकती है तथा हमारी आँखों से देखते हुए वर्तमान सुधार और उन्नत दशा को पहुँच सकी है, पर यह जितना अनुभव मिल चुका है उस पर से कोई यह नहीं कह सकता कि स्त्रियाँ पराधीन रक्खी गईं, इसलिए ही इतनी-उन्नति सरलता-पूर्वक प्राप्त की जा सकी है, अथवा यदि स्त्रियाँ स्वाधीन कर दी जातीं तो मनुष्य-जाति की उन्नति इतनी सरलता-पूर्वक नहीं होती। सच बात तो यह है कि हमारा अनुभव ऐसा बना है कि जैसे-जैसे सुधार की धारा

आगे-आगे बढ़ती गई वैसे ही वैसे स्त्रियों की सामाजिक दशा