डी-माण्टफोर्ट (Simon-de-Montfort) ने सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों को सब से पहिली बार पार्लिमेण्ट में निमन्त्रण दिया था, उस समय क्या किसी को सपने में भी यह ख़याल हुआ था कि ये कुछ प्रतिनिधि ऐसे शक्तिशाली हो सकेंगे कि ज़रा इच्छा करत ही प्रधान मण्डल को बना और बिगाड़ सकेंगे, और राजकार्य में वे राजा पर भी हुकूमत कर सक़ेंगे? उन सब में जो सब से अधिक महत्त्वाकांक्षी होगा, उसकी कल्पना में भी उस समय यह बात न आई होगी कि उच्च वर्ग वाले उमराव अवश्य एक लम्बे अर्से से इस अधिकार के भोगने की आशा कर रहे थे; किन्तु साधारण लोगों की इच्छा केवल इतनी ही थी कि राज्य की निरंकुश होकर कर बढ़ाने की सत्ता किसी मर्यादा के भीतर होनी चाहिए, और सरकारी अधिकारी जो प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे वह बन्द होना चाहिए। राजनीति के विषय में प्रकृति का यह नियम मालूम होता है कि जो लोग पुराने समय से प्रचलित किसी सत्ता के आधीन हो जाते हैं,
वे प्रारम्भ में उस प्रत्यक्ष सत्ता के विरुद्ध कुछ नहीं बोलते, किन्तु उस सत्ता का दुरुपयोग न हो या उसका हाथ जुल्म तक न पहुँचे-यही प्रारम्भ में वे माँगा करते हैं। इस ही प्रकार अपने स्वामियों के अमानुषी व्यवहार के विरुद्ध बहुत सी स्त्रियाँ कहने को तैयार हैं, किन्तु जब वह दोष प्रकट किया जाता है तब पुरुष नाराज़ होते हैं और स्त्रियाँ सन्तप्त
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