पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/४०

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किया जाय और न किसी का लिहाज़ माना जाय; हाँ, जहाँ न्याय और राजनीति के पेचीले कारण सिद्ध हों, उनसे भिन्न अन्य सब प्रसंगों में किसी के साथ भेद-भाव न रक्खा जाय-सब के साथ समान व्यवहार किया जाय। किन्तु मेरे इस सिद्धान्त में इस प्रकार का कोई सूत्र काम नहीं देगा। यदि मैं यह कहूँ,-"स्त्रियाँ पुरुषों के आधीन हैं, पुरुषों को स्त्रियों का अधिकार है; या राजनीति के योग्य पुरुष ही हैं, स्त्रियाँ उसके अयोग्य हैं, यह पक्ष पहला है अतएव अस्तिपक्ष हुआ, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा यह बात सिद्ध कर देनी चाहिए; यदि वे ऐसा न कर सकें या उनके सुबूत पूरे न हों तो उन्हें अपनी बात छोड़ देनी चाहिए," तो निस्सन्देह मेरी यह बात व्यर्थ होगी। इस ही प्रकार यदि मैं यह दलील पेश करूँ कि स्त्रियों से विशेष जिन अधिकारों को पुरुष स्वतंत्रता-पूर्वक भोगता है और स्त्रियाँ उन अधिकारों के अयोग्य समझी जाती हैं,—जिन लोगों का यह सिद्धान्त है उन्हें पुरुषों को विशेष अधिकारों के योग्य और स्त्रियों को उनके अयोग्य सबल प्रमाणों द्वारा साबित कर दिखाना चाहिए; क्योंकि वे एक तो स्त्रियों की स्वाधीनता के ख़िलाफ़ हैं, दूसरे पुरुषों के पक्षपाती हैं। इन दोनों तरीक़ों से तमाम सुबूत उन्हीं के ज़िम्मे पड़ते हैं; यदि वे अपने मत को निर्विवाद रूप से सिद्ध न कर सके-तो फ़ैसला उनके खिलाफ होना चाहिये,-यदि मैं इन्हीं बातों को पेश करूँ तो मेरी