नहीं हुआ, यानी शुरू से आखिर तक इस विषय में मेरा मत नहीं बदला। हाँ, यह अवश्य हुआ कि मेरा सांसारिक अनुभव जैसे जैसे बढ़ता गया और मानसिक सम्पत्ति की जैसे जैसे वृद्धि होती गई-वैसे ही वैसे इस विचार में अधिकाधिक दृढ़ता आती गई-ज्यों ज्यों समय बीता त्यों त्यों यह
विचार पक्का जान पड़ा। मैं जिस विषय का प्रतिदान करने चला हूँ, वह हमारी दृष्टि में इस प्रकार आता है कि, समाज में स्त्री पुरुषों के लिए जो एक दृढ़ नियम बना है, उसके अनुसार समाज का एक समुदाय (स्त्री-समाज) दूसरे समुदाय (पुरुष-समाज) के आधीन है। यानी हम में जो सामाजिक नियम दृढ़ता के साथ प्रचलित है उन सब में यह पहला है कि स्त्रियाँ पुरुषों के आधीन रहें। किन्तु, यह नियम, यह कायदा-मेरी समझ के अनुसार ग़लत है। संसार में उन्नति के बाधक जो थोड़े से कारण हैं उन सब में इसका पहला नम्बर है। इस अत्याचारी नियम का हमें त्याग करना चाहिए, और इसके स्थान पर 'समानता' की प्रतिष्ठा करनी चाहिए; क्योंकि संसार में स्त्री और पुरुष के हक़ बराबर हैं-यानी किसी के अधिकार कुछ कम और किसी के कुछ अधिक है ही नहीं। पुरुष-समुदाय किसी प्रकार विशेष अधिकार पाने का हकदार नहीं, अतः समानता होनी चाहिए।
२-जिस सिद्धान्त के प्रतिपादन का भार मैंने लिया है-