जायगी। और मान लो कि ऐसा हो भी, तब भी क्या विवाह की उदार कल्पना ऐसी ही होती है। ऐसी स्त्री से पुरुष को लाभ ही क्या हो सकता है? यह उसे एक उच्च श्रेणी वाली दासी से अधिक उपयोगी नहीं हो सकती। अब इससे दूसरे पक्ष की बात सोचो। विवाहित स्त्री-पुरुष में यदि कुछ उच्च गुण हों, दोनों पारस्परिक प्रेम से बँधे हों, दोनों के आचार-विचार और वृत्तियों में विशेष अन्तर न हो, तो दोनों का झुकाव एक ही ओर समान रूप से होगा, प्रत्येक को एक दूसरे की दया का सहारा मिलता रहेगा, और इसके कारण दोनों की अन्तःस्थ शक्तियों का विकाश होते हुए,—पहले जिस ओर केवल एक ही व्यक्ति का झुकाव था अब दोनों का समान रूप से होगा। तथा कुछ तो इस बात से कि दोनों की वृत्तियों में कुछ-कुछ लौट-फेर होगा और कुछ एक की वृत्तियाँ दूसरे को पसन्द आवेंगी, इसलिए दोनों के विचार विशेष उदार होंगे—और इस प्रकार दोनों के स्वभाव और वृत्तियाँ धीरे-धीरे एक रूप हो जायँगी। सांसारिक व्यवहार में एक दूसरे के निकट रहने वाले दो मित्रों के जीवन में ऐसी घटना घटते हुए हम बहुत बार देखते हैं, इस समय आदर्श स्त्री-पुरुष पैदा होने की सम्भावना न्यारी-न्यारी शिक्षा के द्वारा निर्मूल कर डाली जाती है। यदि यह सब न किया गया होता तो विवाह के विषय में भी यह बात साधारण बातों के समान प्रचलित हो जाती, इस में ज़रा
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