पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२८

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शास्त्रों में जो कुछ है वह सर्वथा अच्छा ही अच्छा है––इस ज़माने में वह कल्याणकारक ही है। पुनर्जन्म के मानने वाले भी इस बात से नाहीं नहीं कर सकते कि, आत्मा एक होने पर भी अनादि काल तक उसी शरीर से काम नहीं चला सकता, एक निश्चित अवधि के बाद उसे भी शरीर बदलना ही पड़ता है। कोई गवर्नमेण्ट एकबार क़ानून बना कर सदा उसी से काम नहीं चला सकती––उसे भी समय और आवश्यकता के अनुसार सब बातों में परिवर्तन करते रहना पड़ता है। कोई मनुष्य एक दिन भोजन करके उससे बहुत दिन टेर नहीं कर सकता––उसे नित्य भोजन करना पड़ता है और समय तथा आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन करते रहना पड़ता है। जो इस परिवर्तन के महत्त्व को नहीं जानता, वह संसार में जीवित नहीं रह सकता। किन्तु हमारा हिन्दू-समाज अपने लिए जो सामाजिक नियम बना चुका था––उन्हीं के सहारे चल कर वर्तमान संसार का मुक़ाबिला करना चाहता है। पुरानी गूदड़ी चीथड़ों की थिगली लगाते-लगाते हद से ज़ियाद बोझल और घिनौनी बन गई है, पर भिखारी जैसी अपनी उस परम प्यारी गुदड़ी में दो चार चीथड़े और टाँक देना अपना कर्त्तव्य समझता है वैसे ही हिन्दू-समाज अपने पुराने ढकोसलों से भरे रीति-रिवाजों को बोझल होने पर भी सिर पर लादे तरक्की के पहाड़ पर चढ़ना चाहता है! समाज का यह प्रयास तिलों