ओर इन प्रवृत्तियों से मनुष्य-समाज को जितना लाभ होता है, दूसरी ओर उतनी ही हानि होती है। परोपकार के कामों में स्त्रियों की प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-एक तो धर्म का प्रसार करना, दूसरा दानधर्म करना। किन्तु स्वदेश में धर्म का प्रसार करना तो धार्मिक मत-भेदों और वैरभाव की जड़ को जमाना है; और परदेशों में धर्म-प्रसार करने की कोशिश करने का मतलब अन्धे की तरह जो कुछ मिल जाय उसे पकड़ बैठना है-और परिणाम में हमारे धर्म के मानने वालों की इतनी तादाद है या और ऐसे ही उपाय निकाले जाते हैं। पर उन धर्म फैलाने वालों को इसका होश ही नहीं होता कि बहुत बार इसका नतीजा बहुत ही ख़राब होता है,-धर्स फैलाने वालों का मुख्य उद्देश तो सिद्ध होता नहीं, पर दूसरी ओर से मनुष्य समाज पर काहिली का असर होता है। इस ही प्रकार यदि दान के विषय में सोचें तो वहाँ भी यही नतीजा पेश आता है, यानी दान देने और लेने वाले के सम्बन्ध से जो नतीजा निकलता है वह एकदम मनुष्य-समाज की हानि का कारण बनता है। इस प्रकार होने का कारण यह है कि स्त्रियों की शिक्षा सदोष है, निर्दोष नहीं, अर्थात् स्त्रियों का हृदय शिक्षित किया जाता है मस्तिष्क नहीं। दूसरे उनकी समझ का दायरा बहुत ही छोटा बनाया जाता है, वे हर एक काम में यही सोचती हैं कि इसका असर घर के नेता के मन पर कैसा होगा, किन्तु उन्हें इस बात का ज़रा
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