तो है हीं, और उन पर हम जो सत्ता या अधिकार भोगते हैं, वह अपनी योग्यता या मिहनत का फल नहीं है, बल्कि फिगारो (Figaro) के कथनानुसार यह जन्म लेने की तकलीफ़ का फल है। इन में से चाहे जौन सा विचार उनके मन में पैदा होता हो और फिर भी वे अधिकार भोगे जा रहे हों, पर हमें उन के चरित्र के विषय में क्या राय ठहरानी चाहिए? राजा या ग़ुलामों के मालिक अपने आप को जितना पूज्य समझते हैं, पुरुष-वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको पूज्य समझता है। यह मनुष्यों के स्वभाव की एक साधारण प्रवृत्ति होती है कि जिस अधिकार के लिए उन्हें काम नहीं करना पड़ता और जिस के अधिकारी वे बचपन से ही हो जाते हैं उसके विषय में वे दूनकी हाँका करते हैं। इस संसार में ऐसे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं, और वे थोड़े ही सर्वोत्तम है, जो समझते हों कि अमुक अधिकार के हम किसी
प्रकार योग्य नहीं है, यह समझते हुए भी यदि उन्हें वह अधिकार मिल जाय तो उसके विषय में जिन्हें अभिमान न हो। बाकी अधिकांश मनुष्य तो अभिमान से बहक ही जाते हैं, क्योंकि उनका गर्व परिश्रम से प्राप्त की हुई चीज़ के बदले में न होकर अनायास प्राप्त हुई चीज़ से होता है, और इसलिए वे अपनी जाति को सर्वोत्तम मानते हैं। एक तो पुरुष जन्म से ही अपनी जाति की स्त्रियों को जाति से श्रेष्ठ मानता है, दूसरे उसे उसी जाति के एक व्यक्ति पर वे-रोकटोक हुकू-
पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२६०
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( २३९ )