पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२४९

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ख़िलाफ़ आन्दोलन नहीं करतीं, इसलिए पुरुष कुछ और अधिक समय तक ऐसे ही अधिकार भोगते रहेंगे, पर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि पुरुष जो कुछ अधिकार भोगते हैं वे अन्याय से भरे नहीं,—इसे तो कोई कह ही नहीं सकता। बल्कि पूर्व के देशों में जहाँ स्त्रियाँ परदों के भीतर ज़नानाख़ानों में बन्द रहती हैं, वहाँ भी ऐसी ही दलीलें पेश की जा सकती हैं। योरप की स्त्रियों के समान घूमने-फिरने की स्वाधीनता के लिए वे ज़रा भी चूँ नहीं करतीं; बल्कि परदे वाली स्त्रियाँ यूरोपीय स्त्रियों को हद से ज़ियादा ढीठ, निर्लज्ज और स्त्री-धर्म्मशून्य समझती हैं। समाज की प्रचलित रूढ़ि के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पुरुषों ही की संख्या बहुत ही कम होती है; और जो संसार के और किसी समाज की प्रचलित रूढ़ियों को नहीं जानते—जिन्हें कुएं के मैंडक की तरह संसार का ज्ञान ही नहीं होता उनमें अपनी स्थिति पर असन्तोष प्रकट करने वालों का निकलना बहुत ही कठिन है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अपनी स्थिति के विषय में स्त्रियाँ कुछ भी नहीं कहतीं—फिर भी स्त्रियों के लेखों में दुखों की आहें सुनाई देती हैं। जब तक पुरुषों को यह ख़याल नहीं था कि ऐसे लेखों में कुछ व्यावहारिक हेतु भी है तब तक ऐसे लेख बहुत निकले। अपनी दशा पर असन्तोष प्रकट करके मनुष्य जो कुछ उज़्र करता है वैसा ही उज़्र स्त्रियों के लेखों में भी है; उनमें