१५-मैं ऊपर कई बार इस बात को कह चुका हूँ कि स्त्री-पुरुषों की मानसिक शक्तियों में जो भेद दिखाई देते हैं, उनमें स्वाभाविक और अस्वाभाविक कितने हैं, या कोई भेद स्वाभाविक तथा प्रतिसिद्ध है भी या नहीं-यह जब तक वर्तमान स्थिति बनी रहेगी तब तक नहीं जाना जा सकता। इस ही प्रकार उन कृत्रिम कारणीभूत कारणों को दूर करना चाहो जो दो मानसिक शक्तियों में भेद करने वाले बने हैं, तो अभी हम से यह भी नहीं समझा जा सकता कि उनका स्वरूप कैसा होगा। जिस बात को मैं अशक्य कह चुका हूँ उसे पजोखने को प्रपञ्च में मैं नहीं फँसता-किन्तु सन्देह तर्क और कल्पना का प्रतिबन्धक नहीं होता-मन में जिस विषय का सन्देह हो उसके विषय में यह नहीं हो सकता कि कल्पना भी न बाँधी जाय। यह सम्भव है कि कोई विषय निश्चयात्मक रूप से प्रतिपादित न हो, किन्तु प्रतिपादित न होने पर भी ऐसे साधन मिलने सम्भव हैं, जिनसे मन को सन्तोष हो। इस प्रकार देखने से सब से पहला भेद जो हमारे सामने आता है वह यह है, कि ये भेद किस प्रकार पैदा होने पाये, इस विषय में हम कुछ अन्दाज़ा कर सकते हैं-और इस अन्दाज़े में जिस मार्ग को पकड़ना चाहिए उसे ही पकड़ूँगा-अर्थात् मैं यह निश्चित करूँगा कि आस-पास के संयोगों का मन पर कैसा असर होता है। यदि मनुष्य पर
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