ऐसा करने की आवश्यकता ही होती है। किन्तु यह तो निश्चित है कि इस प्रकार की शक्ति या यह गुण-चिन्तन की योग्यता का प्रधान अङ्ग नहीं है, बल्कि सहायक है। तत्त्वचिन्तन के मुख्य कार्य के विषय में तथा उसके सहायभूत गौण कार्य्यों के सम्बन्ध में, तत्त्वचिन्तक जितना समय लेना चाहे उतना लेने को उसे पूरी आजादी है। उसे जो कुछ करना होता है उस में जल्दी या घबराहट का कोई कारण ही नहीं होता-इसके विरुद्ध उसे धैर्य और शान्ति की विशेष ज़रूरत होती है। जिस विषय को वह उठाता है उसके प्रत्येक अङ्ग पर जब तक प्रकाश न पड़े तब तक उसे उसकी राह देखनी पड़ती है-अधूरे ज्ञान पर वह जो तर्क करता है, उसे जब तक सिद्धान्त की योग्यता प्राप्त नहीं होती तब तक स्वस्थ चित्त से उस में ही लगा रहना पड़ता है। दूसरी ओर, जिनका काम नित्य के व्यवहार से पड़ता है-जिन्हें अनित्य और अल्प बातों से लाभ उठाना पड़ता है-ऐसे मनुष्यों के लिए झटपट निर्णय पर पहुँचाने वाली बुद्धि की अधिक आवश्यकता है-बल्कि इसके विषय में यदि यह कहा जाय कि, यह विचारशक्ति के समान ही उपयोगी है तब भी कोई हानि नहीं। जिस व्यक्ति की बुद्धि प्रसङ्ग आते ही झटपट काम करने योग्य नहीं बन जाती, वह निकम्मी सी ही है। वे यदि किसी की टीका-टिप्पणी या समालोचना करना चाहें तो तो भले ही कर सकें, पर किसी काम को करके दिखा देने
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