आगे बढ़ ही नहीं सकता; पर वह ज्ञान क्रमबद्ध नहीं होता, बल्कि अव्यवस्थित और टुकड़े-टुकड़े होता है। स्त्रियों का ज्ञान भी इस ही प्रकार अव्यवस्थित-बेसिलसिले का होता है।
९-किन्तु एक ओर स्त्रियों को प्रत्यक्ष दृष्टि की प्रवृत्ति के कारण जो गलतियाँ होनी सम्भव हैं, दूसरी ओर इस प्रवृत्ति के न होने पर जिस प्रकार की भूलें हो सकती हैं, उन्हें रोकने के लिए यह प्रवृत्ति ढाल का काम देती है। जिन व्यक्तियों में कल्पनावृत्ति की विशेषतः होती है उन में सब से बड़ी कमी यह होती है कि झटपट प्रतीति कराने के लिए शीघ्रावलोकन-शक्ति उन में कम होती है। इस कमी के कारण, किसी भी महत्त्व के प्रश्न के विषय में वे जो कल्पना करते हैं, वह प्रत्यक्ष बातों की विरोधिनी होने पर भी, उस विरोध का यथार्थ ज्ञान उन्हें नहीं होता। इतना ही नहीं, बल्कि बहुत बार तो वे तत्त्वचिन्तन के मुख्य उद्देश को भी भूल जाते हैं, इसलिये उन की कल्पना-शक्ति पर किसी प्रकार का दबाव ही नहीं रहता, और वे ऐसे प्रदेशों में भ्रमण करने लगते हैं जहाँ सजीव या निर्जीव किसी भी प्रकार की कल्पित सृष्टि नहीं बसती; किन्तु जहाँ केवल अध्यात्मशास्त्र के भ्रान्तियुक्त सिद्धान्तों की सहायता से या केवल शब्द-जाल के गूँथने से उत्पन्न हुए मूर्तिमान् छायामय प्राणी निवास करते हैं। उनकी कल्पनाशक्ति ऐसी छायामय कल्पित सृष्टि को ही