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कई स्मृतिकारों का मत है-"क्षेत्रभूतास्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुसान्*[१]" तथा, "क्षेत्रिकस्यैव तहीजं न वप्ता लभते फलम्†[२]" अन्य स्मृतिकारों का मत होते हुए भी मनु का कहना है कि:-"पशुधर्मो विगर्हितः‡[३]" अतः वेदसम्मत नहीं है। क्योंकि, "नोहाहिकेषु मंत्रेषु नियोगः कीर्त्वते क्वचित्§[४]" इतना होते हुए भी नियोग की प्रथा भारत में वेणु राजा ॥[५] के समय से प्रचलित हुई। वेणु राजा ने, "कामोपहत चेतनः" होकर नियोग-विधिको चलाया, तब से नियोग को, "विगर्हन्तिसाधवः ¶[६]" अर्थात्-"नान्धस्प्निन्विधवानारी नियोक्तव्या हिजातिभिः៛[७]" कलियुग में किसी वर्ण के लिये भी नियोग सशास्त्र नहीं। वृहस्पति संहिता में इसका अच्छा विवेचन है¤[८]। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक उड़ीसा में यह प्रथा प्रचलित थी↓[९]।