शारीरिक कष्ट और बच्चों को छुटपन में उन्हें योग्य रीतियों से पालन करना फिर उत्तम प्रकार की गृह-शिक्षा देना-ये जवाबदारी के काम तो उसके ज़िम्मे होते ही हैं। इसके अलावा पति की कमाई का योग्य और किफ़ायतशारी के साथ व्यय करना और प्रत्येक बात में कुटुम्ब के सुख को अपने लक्ष्य में रखना भी यदि वह अपने ही ज़िम्मे रखे तो स्त्री और पुरुष दोनों को जो शारीरिक और मानसिक कष्ट गृहस्थाश्रम के कारण होते हैं, उनमें स्त्री ने अपने सिर पूरा भाग ले लिया, बल्कि अपने हिस्से से अधिक भाग ही उसने लिया है। इसके सिवाय यदि कोई बाहर का काम भी अपने ज़िम्मे ले लेवे तो फिर भी गृहकृत्य से तो वह मुक्त हो ही नहीं सकती, बल्कि उस दशा में गृहकृत्य जितना अच्छा
होना चाहिये उतना नहीं होता। यदि गृहव्यवस्था और सन्तान-पालन का काम वह अपनी ओर नहीं रखती तो उस काम को और कोई लेता नहीं। परिणाम यह होता है कि सन्तान जिस-तिस प्रकार अव्यवस्था में पल कर बड़ी होती है, और अव्यवस्था के कारण स्त्री जो कुछ कमा कर लाती है वह
उस में खर्च हो जाने पर भी कुछ नहीं बचता। इसलिए मेरा मत गृहस्थाश्रम के विषय में यही है कि, स्त्रियों को जहाँ तक हो स्वयं परिश्रम करके घर की आय बढ़ाने की चिन्ता में नहीं ही पड़ना चाहिये। दूसरी ओर गृहस्थी की दशा यदि ख़राब हो, और स्त्री को पराधीनता में रहना पड़ता हो,
पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१६९
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( १४६ )