पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१६५

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क़ानून के विरुद्ध क्रान्ति का उपदेश देने से उसे कोई मतलब ही न था, उसके सम्पूर्ण कार्य का उद्देश ही इससे बिल्कुल भिन्न था। इस धर्म-प्रसारक साधु ने यह भी उपदेश दिया है कि,-"राजा जो राजसत्ता भोगते हैं, वह केवल परमात्मा की इच्छा से ही भोगते हैं।" ऐसी दशा में इस वचन का क्या यह अर्थ करना चाहिए कि ईसाई लोग 'एकसत्ताक राज्यतन्त्र' को ही सब से अच्छा समझते हैं; इसलिए ईसाई देशों की इसी पद्धति को सम्मान देना चाहिए? इसी ही प्रकार अपने समय के प्रचलित आचार-विचार और रीति-रिवाजों को साधु सेन्टपाल ने विशेष सम्मान दिया था, तो क्या इस बात का मतलब यह हो सकता है कि समय के अनुसार प्रत्येक बात के परिवर्तन और सुधार से वह सहमत न था? प्रचलित रीति-रिवाज और प्रचलित पद्धतियों में बिल्कुन्त लौट-फेर न होने देना, और प्रचलित राज्यपद्धति को सदा-सर्वदा के लिए स्थायी बनाना-और परिवर्तन न करने का ईसाई धर्म का दावा करना तो इस धर्म को मुसल्मानी या हिन्दू धर्म की नीची श्रेणी पर ले आना है। सच बात तो यह है कि ईसाई धर्म ने सुधार का विरोध कभी नहीं किया, इसलिए की संसार की जिस जाति ने सुधार में सब से आगे क़दम बढ़ाया उसका यही धर्म हो गया, और मुसल्मान तथा हिन्दू सुधार में सब से पीछे हैं, या पीछे हटनेवालों में सब से अव्वल है। ईसाई धर्म के इतिहास से मालूम होता है कि इसे भी