कर रहा हूँ, उन्हें ऐसा व्यवहार रखने वाले पुरुष ही सब से पहले अपनावेंगे, क्योंकि मेरे विचारों का उद्देश ही यह है कि इन स्त्री-पुरुषों का जैसा पारस्परिक व्यवहार है वैसा ही संसार के बहु-संख्यक मनुष्यों का हो। किन्तु संसार में सदा इस प्रकार घटा करता है कि जो मनुष्य बहुत ही सुआचरणी या सदाचार-सम्पन्न होते हैं, यदि वे भी विचार-शील नहीं होते तो प्रचलित रीति-रिवाज या क़ानून उन्हें भी हानिकारक नहीं मालूम होता, क्योंकि ख़ुद उनके भीतर जो कुछ दुष्परिणाम हैं उसका अनुभव उन्हें कभी नहीं होता। वे सोचते हैं कि यह रीति-रिवाज बहुत से मनुष्यों की पसन्द के अनुसार है, इसलिए यह लाभकारी ही होनी चाहिए, ऐसी दशा में उसके विरुद्ध शोर करना व्यर्थ है। पर उनके विचारों में बहुत सी गलतियाँ होती हैं। वे समझते है कि क़ानून ने स्त्री-पुरुषों के अधिकार समान बनाये हैं, बहुधा इसी समझ के अनुसार अपना सम्बन्ध भी रखते हैं, इसलिए विवाह-सम्बन्ध को क़ानून ने किन बन्धनों से जकड़ रक्खा है, इस बात का उन्हें वर्ष में एक बार भी ज्ञान नहीं होता। अपनी समझ और व्यवहार को इस प्रकार का रखने के कारण वे समझते हैं कि संसार के अधिकांश विवाहित दम्पति इस ही प्रकार अपना व्यवहार रखते हैं, और जो स्वामी कठोर और निर्दय स्वभाव वाला होता है वही अपनी स्त्री से अत्यधिक कड़ा व्यवहार रखता है। इस प्रकार
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