पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१५०

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पर ही छोड़ दिया जाता हो, साथ ही धर्म और नीति के ऐसे ज़बर्दस्त बन्धन उसके गले में बाँध दिये जाते हों कि अधिकारी उस पर चाहे जितना अत्याचार करे फिर भी वह उसके सामने नज़र न उठावे-क़ानून की ऐसी आज्ञा होने पर भी यदि वे दोनों व्यक्ति मिल-जुल कर सब बातों में स्नेह-ममता से काम करते हों, तो ऐसी स्थिति में उनके सम्बन्ध और व्यवहार को यथान्याय या क़ानून के अनुसार नहीं कह सकते।

१०-इस अवसर पर कोई दुराग्रही प्रतिपक्षी यह कहेगा कि पुरुष तो विचारे सीधेसादे होते हैं, और वे अपनी स्त्री के योग्य अधिकारों को स्वीकार कर लेते हैं, उनसे उदार व्यवहार करने को सदा तैयार रहते हैं, तथा इस बात में उन्हें उनका कर्त्तव्य बताने की आवश्यकता ही नहीं होती; किन्तु स्त्रियाँ ही हठीली और ना-समझ होती हैं। यदि स्त्रियों को थोड़ी सी भी और स्वाधीनता दे दी जाय; और यदि पुरुष अपने अधिकार से सदा उन्हें दबाते न रहें तो, स्त्रियाँ उनके प्रति ज़रा भी नम्रता न दिखावें। यह प्रतिपादन करने की रीति ऐसी है जो अब से सौ वर्ष पहले के मनुष्यों को शोभा दे सकती थी, क्योंकि उस समय हर एक तरह से, उठते-बेठते खाते-पीते स्त्रियों की अवमानना करने की आदत ही होगई थी। अपने आप पुरुषों ने स्त्रियों की जो दशा बना डाली थी, उसके हँसने योग्य उदाहरण देकर, उनकी निन्दा और भर्त्सना करके ही उस समय के मनुष्य