फ़ैसला कराते हैं, वे यह समझते हैं कि ऐसा न करने से मामला कचहरी में पहुँचेगा, और वहाँ पहुँचने पर न्यायाधीश की आज्ञा माननी ही पड़ेगी—इसलिए आपस में फ़ैसला कर लेना ही अच्छा है। किन्तु इन दोनों उदाहरणों में विशेष सादृश्य नहीं है। यदि कचहरी का फ़ैसला निष्पक्ष न होकर, सदैव एक पक्ष में रहा करे-मान लो कि प्रतिवादी के लाभ में ही सदैव न्याय दिया करे, उस दशा में दोनों उदाहरण समान हो सकते हैं। यदि कचहरी में सदैव प्रतिवादी के लाभ में ही फ़ैसला हुआ करे, तो सचमुच वादी के मन में यही बात पैदा हो कि कचहरी में जाने की अपेक्षा चार भले आदमियों में निपटारा हो जाना ही अच्छा है और केवल उन्हीं के फैसले पर वह सन्तोष भी मान ले। यदि ऐसा ही हो तो प्रतिवादी को फ़ैसले को ग़रज़ ही क्या हो? इस ही प्रकार क़ानून के अनुसार पुरुषों को अनियन्त्रित अधिकार होने ही के कारण, यदि स्त्री अपना दुराग्रह छोड़ दे तो यह हो भी सकता है। क्योंकि वह मन ही मन समझ सकती है कि कचहरी में पुकारने से कोई लाभ न होगा, इसलिये घर में ही जितने अधिकार वह ले सकती हो उतने ले लेवे। पर बहुत बार जो पुरुष स्त्री की इच्छा को प्रधान रखता है, उसका तो यह कारण हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसे क़ानून या कचहरी का डर तो होता ही नहीं। क़ानून या लोकाचार स्त्री-पुरुष के लिए उनमें से एक ही का बन्धन नहीं
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