सूत्र लिखे बिना इस स्थान से छुटकारा नहीं हो सकता; इसका उपयोग मुझे इसी विषय में करना है। हम जिस सत्ता के विषय में विचार कर रहे हैं वह सत्ता किन्हीं खास-खास व्यक्तियों को नहीं दी जाती, बल्कि प्रत्येक बालिग़ मनुष्य को यह सत्ता प्राप्त होती है, और आश्चर्य की बात तो यह है कि अत्यन्त नीच राक्षस के समान मनुष्य भी इससे कोरा नहीं रहता। जो मनुष्य बाहरी बर्ताव से सच्चरित्र मालूम होता हो, या जिन पर उसका ज़ोर न हो उनसे बड़ी सभ्यता और मर्यादा से व्यवहार करता हो-तो केवल इस दिखावटी व्यवहार पर यह अनुमान बाँधना भूल है कि वह अपने अधीन मनुष्यों पर भी वैसी ही सभ्यता से पेश आता होगा; साधारण से साधारण मनुष्य अपनी तामसी, स्वार्थी और नीच मनोवृत्तियाँ अपने बराबर वालों के सामने भी प्रकट नहीं करते, किन्तु जिन पर उनका पूरा हक़ होता है और जिन में उसके ख़िलाफ़ पलट कर जवाब देने तक की ताक़त नहीं होती-उसी ही पर वे अपनी कुत्सित मनोवृत्तियाँ प्रकट करते हैं। यदि मनुष्य के दुर्गुणों का मूल और उसका उत्पत्ति-स्थान देखना है तो सेन्य-सेवक-सम्बन्ध को ही देखना चाहिए, मूल उत्पत्ति का स्थान इसी सम्बन्ध से है। जिस मनुष्य का व्यवहार अपनी बराबर वालों से भी कड़ा होता हो, तो वह अपने से नीची श्रेणी वाले मनुष्यों के सहवास में रहा हुआ होना चाहिए, और उन्हें धमका कर अपने दबाव में रखने वाला
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