स्थिति यदि प्रत्यक्ष होती तो निस्सन्देह मनुष्य समाज नरक हो जाता। सद्भाग्य से मानसिक वृत्तियों का यह हाल होता है कि अपने अधीनस्थ पर अत्याचार कराने वाली जो कुप्रवृत्तियाँ होती हैं उन्हें मनुष्य की स्वार्थबुद्धि और अन्तःकरण की साधु वृत्तियाँ अपने अंकुश में रखती है, अर्थात् साधुवृत्तियों के कारण मनुष्य संयम में रहता है। पुरुष में स्त्री के प्रति जो मोह-माया होती है, वह ऐसी वृत्तियों का उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसी वृत्तियों का दूसरा अच्छा उदाहरण पिता-पुत्रका वात्सल्य प्रेम है; और यह सम्बन्ध पति-पत्नी के बीच में किसी प्रकार रुकावट न डाल कर उलटा उसे अधिक दृढ़ करता है। ऐसी दशा होने के कारण तथा ऊपर बताई हुई ममता के वश होकर पुरुष अपने अधिकार को पूरा काम में नहीं लाते, अर्थात् पुरुष स्त्री को जितना कष्ट दे सकते हैं उतना नहीं देते। इसलिए वर्त्तमान समाज-व्यवस्था के पक्षपाती यह सिद्धान्त निकालते हैं कि वर्त्तमान व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के सम्बन्ध में जो कुछ ख़राबियाँ हैं वे क्षन्तव्य हैं और इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना व्यर्थ है, क्योंकि प्रत्येक अच्छी बात के साथ कुछ न कुछ खोट लगा ही रहता है। क़ानून के अनुसार किसी प्रकार का अत्याचार करने की इजाज़त हो, पर प्रत्यक्ष व्यवहार में लोग बहुत ही सीधे और नरम बने हों, यानी क़ानून के आज्ञा होने पर भी अत्याचार न किया जाता हो, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि
पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१२४
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( १०१ )