"सप्तवर्षाभवेत्गौरी......"(शीघ्रबोध) आदि से हमने इस बात को धर्म का अङ्ग भी बना डाला कि सात, नौ या ग्यारह वर्ष की आयु में उनका विवाह होही जाय। अपनी नाबालिग सन्तान का, धर्मका नाम लेकर, इस तरह जीवन भ्रष्ट करना किसी समाज के अच्छेपन की निशानी होही नहीं सकती। फिर विवाहित हिन्दू स्त्री की जैसी मिट्टी पलीत की गई है-वह वर्णनातीत है। हिन्दू स्त्री पति की आजीवन क्रीतदास है, और क्रीतदास से अधिकता यह है कि वह धर्म, शास्त्र और समाज की चक्की में ऐसी कुचली गई है कि उसमें स्वाधीन मन, स्वाधीन हृदय और स्वाधीन मस्तिष्क का कुचला बनाया गया है। सम्पूर्ण हिन्दू-शास्त्र स्त्रियों को एक स्वर से पति-भक्ति, पतिनिष्ठा, पतिसेवा, पतिपरमात्मा, पतिदेवता, पतिसर्वस्व का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें पतिपरायणा या पतिमयी बनाते हैं। दूसरी ओर, ये शास्त्र पतियों को स्त्रियों का आदर करना भी सिखाते है; किन्तु एक तो वे स्वाधीन हैं, दूसरे स्त्रियों की सत्ता के स्वामी हैं, तीसरे स्त्रियों के लिए ऐसे शास्त्र निर्माण करने वाले भी इसी वर्ग वाले है-इसलिए हमारे समाज में पुरुष-वर्ग वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को उन अंकुशों की दाब में नहीं समझता। किन्तु स्त्रियों से मनसावाचाकर्मणा पतिभक्ति का बोझ ढुवाया जाता है। यह अन्याय तभी दूर हो सकता है जब स्त्रियों को भी वे ही अधिकार प्राप्त हों जो पुरुषों को हैं। अन्यथा इस अन्याय का प्रतीकार और किसी प्रकार से होही नहीं सकता।