दूसरे शब्दों में कहें तो "जो कुछ तेरा सो मेरा, और मेरा सो है ही" यही पुरुषों का नियम है। पुरुषों के विरुद्ध इस प्रकार का न्याय कभी नहीं किया जाता। जैसे अपने जानवर या अपने ग़ुलाम के काम का जवाबदार उसका मालिक समझा जाता है, स्त्रियों के विषय में उनके पति वैसे ही समझे जाते हैं। इस बात से मेरा मतलब यह नहीं कि पुरुष स्त्रियों के प्रति जो बर्ताव करते हैं वह ग़ुलामों से किसी प्रकार अच्छा नहीं होता; पर स्त्रियाँ पुरुषों की पराधीनता में रह कर जिस परिमाण में ग़ुलामी भोगती हैं उस परिमाण में कोई पुरुष-दास भी ग़ुलामी नहीं भोगता। स्वामी की देख-रेख में रहने वाले दासों के सिवाय किसी ग़ुलाम को चौबीसों घण्टे ग़ुलामी नहीं भोगनी पड़ती। प्रत्येक दास का काम निश्चित होता है, उसे पूरा करने के बाद वह अपने बाक़ी समय को स्वाधीनता-पूर्वक बिता सकता है। फिर वह अपने कुटुम्ब का आनन्द उपभोग कर सकता है, उसका स्वामी भी उस में किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालता। पर स्त्रियाँ तो ग़ुलामों के बराबर भी स्वाधीन नहीं हैं, बल्कि ग़ुलामों से निकृष्ट उनकी यह दशा है कि, यदि दासियों का स्वामी उनसे उनकी इच्छा के विरुद्ध सम्भोग-सुख प्राप्त करना चाहे तो वे कानूनन उसे रोक सकती है। पर विवाहित स्त्री को तो ऐसा कोई हक़ ही नहीं है। दुर्भाग्य से स्त्रियाँ चाहे जैसे क़साई-प्रकृति वाले पुरुषों के अधीन हो गई हों, वह उन्हें चाहे जैसे हैरान करके आनन्द मनाता
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