जैसा कि प्रस्तुत ग्रंथ से पाठकों को प्रगट होगा स्टालिन भारम्भ से ही कूटनीति का पुजारी है। वहां हिटलर और मुसो- लिनी कूट राजनीति को पसन्द न कर स्पष्टवादिता से काम लेते हैं वहां स्टानिन उस नीति का ब्रिटेन से भी अधिक पुजारी है। स्टालिन की बाल्यकाल की भावारागर्दी, क्रांतिकारी क्षेत्र के भार. म्भिक कार्य, उसके १६०५ को क्रांति के कार्य, १९१७ की क्रांति के कार्य, रूसी विधान के नाम पर की गई हत्याओं तथा ट्रॉट्स्की के ऊपर किये हुए अत्याचारों-सभी से उसकी उचतम कूटनीति का आभास मिलता है। वास्तव में वर्तमान डिक्टेटरों में वह सबसे अधिक चतुर है। उसको फासिस्टवाद से इसलिये घृणा नहीं थी कि वह साम्यवाद का पुजारी था, वरन उसकी घृणा का कारण उसकी सामाज्य-लिप्सा थी। उसकी चतुर राजनीतिक दूर-दृष्टि ने यूरोप के इस होने वाले युद्ध का पहिने ही अनुमान कर लिया था।स्टालिन इस राजनीतिक दांव-पेच की बाजी में एक ऐसे चतुर खिलाड़ी के रूप में उत. रना चाहता था कि इस युद्ध से जो कुछ नकाकू राष्ट्र रक की एक एक बूंद खचे करके प्राप्त करे, वह उसको बिना परिश्रम एवं रक्त बहाए अनायास ही प्राप्त हो जावे। उसको दिखनाई दे गया कि इंगलैंड और फ्रांस के साथ उसकी यह नीति सफल होने पानी नहीं। अतः उसने १९३६ की ३ को सोवियट संधि की धज्जियां खड़ा कर २२ अगस्त १९३६ को जर्मनी के साथ संधि करके समस्त संसार को पाश्चर्य में डाल दिया। हिटलर कूट राजनीति में बिल्कुल कोरा था ही, वह स्टालिन की पट्टी में आगया और उसने पोलैंड को स्वयं जीत कर भी उसका रूसी भाग चुपके से स्टालिन को देकर पोलैंड के इस बटवारे पर २६ सितम्बर १९३८ को दूसरी ल्स-जर्मन संधि की मुहर लगादी। इस संधि के
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