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[बीस पाताल का अन्तर हो गया था, अब एक आदर्श विद्यार्थी के रूप में कोरा नदी के पुल पर से गुजर रहा था। बाल्यकाल का चित्र उसकी आंखों के सामने आ उपस्थित हुआ। परन्तु वह एक अतीत समय की कहानी थी। उसने शीत्र ही अपना सम्पूर्ण भ्यान अपनी धार्मिक पुस्तक में केन्द्रित कर दिया। अत: स्वाध्याय करता हुआ वह नदी के दूसरे तट पर पहुँच गया। तट के समीप ही उसके बाल्यकाल के समान अब भी फल वालों की दूकानें थीं। इधर उधर गर्जस्तानी उर्वरा भूमि के मधुर और सुस्वादु मेवे शोभायमान थे। नवयुवक विद्यार्थी चलते • एक फन वाले की दूकान के आगे खड़ा होगया और मुस्कराने लगा। यदि वह अभी तक अपने बाल्यकाल का सोसो होता तो निश्चयपूर्वक इन फलों के ढेरों को देखकर ऐम ही रिक्त-हात चले जाना स्वीकार न करना । अपितु जो कुछ हाथ लगता, उसे लेकर नदी में कूद पड़ता और तैर कर दूसरे किनारे पर निकल जाता। किन्तु भावी पादरी ने इस अवसर पर अपने पूर्व चरित्र की उपेक्षा वर जेब में हाथ डाला और कुछ छोटे सिक्के निकाले । फल वाले ने भी उसकी सूरत पहचानी और ओठों पर विचित्र प्रकार की मुस्कराहट के साथ उसके लिये हुये फलों को कागज के एक थैले में डाल दिया और वह इस बैग को हाथ में लिये पुनः आगे की ओर चल दिया। जिस समय वह कागज हाथ में लिये गजिस्तानी अंजीरों को निकालता और खाता चला जाता था, अकस्मात् उसकी दृष्टि अखबार के उस काराज की ओर गई जिससे बैग बनाया गया था । वह किसी विशेष उद्देश के बिना ही उसके लेख को पढ़ कर एक दम बौंका और तुरन्त खड़ा हो गया। वह लेख को एक बार फिर ध्यानपूर्वक पढ़ने लगा। उस पर निम्न पंक्तियां लिखी