देवसेना-- (आश्चर्य से) क्या कह रही हो?
विजया-- वही जिसे तुम सुन रही हो।
देवसेना-- वह तो जैसे उन्मत्त का प्रलाप था, अकस्मात् स्वप्न देखकर जग जानेवाले प्राणी की कुतूहल-गाथा थी। विजया! क्या मैंने तुम्हारे सुख में बाधा दी? परन्तु मैंने तो तुम्हारे मार्ग को स्वच्छ करने के सिवा रोड़े न व बिछाये।
विजया-- उपकारो की ओट से मेरे स्वर्ग को छिपा दिया, मेरी कामना-लता को समूल उखाड़कर कुचल दिया!
देवसना-- शीघ्रता करनेवाली स्त्री! अपनी असावधानी का दोष दूसरे पर न फेंक। देवसेना मूल्य देकर प्रणय नहीं लिया चाहती है......। अच्छा, इससे क्या?
(जाती है)
विजया-- जाती हो, परन्तु सावधान!
(भटार्क और प्रपंचबुद्धि का प्रवेश)
भटार्क-- विजया! तुम कब आई हो?
विजया-- अभी-अभी; तुम्हीं की तो खोज रही थी। {प्रपंचबुद्धि को देखकर) आप कौन है?
भटार्क-- ‘योगाचार-संघ' के प्रधान श्रमण आर्य्य प्रपंचबुद्धि।
(विजया नमस्कार करती है)
प्रपंच०-- कल्याण हो देवि! भटार्क से तो तुम परिचित-सी हो, परन्तु मुझे भी जान जाओगी।