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द्वितीय अंक
 

(सब आश्चर्यं से देखते हैं)

स्कंद०-- कुमारदास, सिहल के युवराज?

मातृगुप्त-- हाँ महाराजाधिराज!

स्कंद०-- अद्भुत! वीर युवराज! तुम्हारा स्नेह क्या कभी भूल सकता हूँ? आओ, स्वागत!

(सब मंच पर बैठते हैं)

गोविन्द०-- बन्दियों को ले आओ।

(सैनिकों के साथ भटार्क, शर्वनाग, विजया तथा कमला का प्रवेश)

स्कंद-- क्यों शर्व! तुम क्या चाहते हो?

शर्व०-- सम्राट्! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, ऐसे नीचे के लिये और कोई दंड नहीं है।

स्कंद॰-- नहीं, मैं तुम्हें इससे भी कड़ा दंड दूँगा, जो वध से भी उग्र होगा।

शर्व०-- वही हो सम्राट्! जितनी यंत्रणा से यह पापी प्राण निकाला जाय, उतना ही उत्तम होगा।

स्कंद॰-- परन्तु मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, क्षमा करता हूँ। तुम्हारे अपराध ही तुम्हारे मर्मस्थल पर सैकड़ों बिच्छुओं के डंक की चोट करेंगे। आजीवन तुम उसी यंत्रणा को भोगो, क्योकि रामा--साध्वी रामा--को मैं अपनी आज्ञा से विधवा न बनाऊँगा। रामा सती! तेरे पुण्य से आज तेरा पति मृत्यु से बचा!

(रामा सम्राट् का पैर पकड़ती है)

शर्व०-- दुहाई सम्राट् की! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, नहीं

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