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स्कंदगुप्त
 

सब-- (समवेत स्वर से) जय हो!

बन्धु०-- आर्य-साम्राज्य के महाबलाधिकृत महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की जय हो! ( सब वैसा ही कहते हैं)

स्कंदु०--आर्य्य! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकूँ, और आर्य्यराष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व-अर्पण कर सकूँ, आप लोग इसके लिये भगवान से प्रार्थना कीजिये और आशीर्वाद दीजिये कि स्कंदगुप्त अपने कर्त्तव्य से, स्वदेशसेवा से, कभी विचलित न हो।

गोविन्द०-- सम्राट्! परमात्मा की असीम अनुकम्पा से आपका उद्देश सफल हो। आज गोविन्द ने अपना कर्तव्य-पालन किया। वत्स बंधुवर्म्मा! तुम इस नवीन आर्य्यराष्ट्र के संस्थापक हो। तुम्हारे इस आत्मत्याग की गौरव-गाथा आर्य्य-जाति का मुख उज्ज्वल करेगी। वीर! इस वृद्ध में साम्राज्य के महाबलाधिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्हीं इसके उपयुक्त हो।

बंधु०-- अभी नही आर्य्य! आपके चरणों में बैठकर यह बालक स्वदेश-सेवा की शिक्षा ग्रहण करेगा। मालव का राजकुटुम्ब, एक-एक बच्चा, आर्य्य-जाति के कल्याण के लिये जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत है। आप जो आज्ञा देंगे, वही होगा।

"धन्य! धन्य!”

स्कंद०-- तात! पर्णदत्त इस समय नहीं हैं!

चक्र०-- सम्राट्! वह सौराष्ट्र की चञ्चल राष्ट्रनीति की देखरेख में लगे हैं।

(कुमारदास का प्रवेश)

मातृगुप्त-- सिहल के युवराज कुमार धातुसेन की जय हो!

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