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द्वितीय अंक
 

("मालव की जय हो!"--तुमुल ध्वनि)

बंधुवर्म्मा-- (हँसकर) सम्राट्! अब तो मालवेश्वरी ने स्वयं सिंहासन त्याग दिया है, और मैं उन्हें दे चुका था, इसलिये अब सिंहासन ग्रहण करने में विलम्ब न कीजिये।

गोविन्द०-- वत्स! इन आर्य्य-जाति के रत्नों की कौन-सी प्रशंसा करूँ। इनका स्वार्थ-त्याग दधीचि के दान से कम नहीं। बढ़ो वत्स! सिंहासन पर बैठो, मैं तुम्हारा तिलक करूँ।

स्कंद॰-- तात! विपत्तियों के बादल घिर रहे हैं; अन्तर्विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित है; इस समय मैं केवल एक सैनिक बन सकूँगा, सम्राट नहीं।

गोविन्दगुप्त-- आज आर्य्य-जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है, सैनिक छोड़कर और कुछ नहीं । आर्य्य-कन्याएँ अपहरण की जाती हैं; हूणों के विकट तांडव से पवित्र भूमि पादाक्रांत है; कहीं देवता की पूजा नहीं होती; सीमा की बर्बर जातियो की राक्षसी वृत्ति का प्रचंड पाखंड फैला है। इसी समय जाति तुम्हें पुकारती है--सम्राट होने के लिये नहीं, उद्धार युद्ध में सेनानी बनने के लिये--सम्राट्!

(गोविन्दगुप्त और बन्धुवर्म्मा हाथ पकड़कर स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठाते है। भीम छत्र लेकर बैठता है । देवसेना चमर करती है। गरुड़ध्वज लेकर बंधुवर्म्मा खड़े होते हैं। देवकी राजतिलक करती है। गोविन्दगुप्त खड्ग का उपहार देते हैं। चक्र गरुड़ांक राजदण्ड देता है।)

गोविन्दगुप्त-- परम भट्टारक महाराजाधिराज स्कंदगुप्त की जय हो!

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