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द्वितीय अंक
 


विजया--(स्वगत) ओह! इस आनंद-महोत्सव में मुझे कौन पूछता है, मै मालव में अब किस काम की हूँ! जिसके भाई ने समस्त राज्य अर्पण कर दिया है--वह देवसेना और कहाँ मैं! तब तो मेरा यही...(भटार्क की ओर देखती है)

गोविन्द०--भद्रे! तुम अपना स्पष्ट परिचय दो।

विजया--मैं अपराधिनी हूँ।

मातृगुप्त--परंतु तुम्हारा और भी कोई परिचय है?

विजया--यही कि मै बन्दी होने की अभिलाषिनी हूँ।

कमला--वत्से! तुम अकारण क्यों दुःख उठाती हो?

विजया--मेरी इच्छा। मुझे बंदी कीजिये। मैं अपना परिचय न्यायाधिकरण में दूँगी। यहाँ मै कुछ न कहूँगी। मेरा यहाँ अपमान किया जायगा तो आर्य्यराष्ट्र के नाम पर मैं तुम लोगों पर अभियोग लगाऊँगी।

गोविंद०--क्यों भटार्क! यदि तुम्हीं कुछ कहते--

भटार्क--मैं कुछ नही जानता कि यह कौन है। मुझे भी विलम्ब हो रहा है, शीघ्र न्यायाधिकरण में ले चलिये।

मुद्गल--और वृद्धा कमला?

गोविन्द०--वह बंदी नहीं है, परंतु एक बार स्कंद के समक्ष उसे चलना होगा ।

मातृगुप्त--तो फिर सब चलें, अभिषेक का समय भी समीप है।

[ सब जाते हैं ]