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स्कंदगुप्त
 

रामा--(उत्सुकता से) क्यों?

शर्व०--सोना लेना हो, मान लेना हो, तो ऐसा ही करना; क्योंकि आज वहाँ जो कांड होगा, तुम उसे देख न सकोगी। तुम अभी इसी स्थान से लौट जाओ!

रामा--(डरती हुई) क्या करोगे? तुम पिशाच की दुष्कामना से भी भयानक दिखाई देते हो! तुम क्या करोगे? बोलो।

शर्व०--(मद्यपान करता हुआ) हत्या! थोड़ी-सी मदिरा दे, शीघ्र दे, नहीं तो छुरा भोंक दूँगा। ओह, मेरा नशा उखड़ा जा रहा है।

रामा--आज तुम्हें क्या हो गया है! मेरे स्वामी! मेरे......

शर्व०--अभी मैं तेरा कुछ नहीं हूँ। सोना मिलने से हो जाऊँगा, इसीका उद्योग कर रहा हूँ।

(इधर-उधर देखकर, बगल से सुराही निकालकर पीता है)

रामा--ओह! मैं समझ गई! तूने बेच दिया--पिशाच के हाथ तूने अपने को बेच दिया। अहा! ऐसा सुन्दर, ऐसा मनुष्योचित मन, कौड़ी के मोल बेच दिया। लोभ-वश मनुष्य से पशु हो गया है। रक्त-पिपासु! क्रूरकर्म्मा मनुष्य! कृतघ्नता की कीच का कीड़ा! नरक की दुर्गंध! तेरी इच्छा कदापि पूर्ण न होने दूँगी। मेरे रक्त के प्रत्येक परमाणु में जिसकी कृपा की शक्ति है, जिसके स्नेह का आकर्षण है, उसके प्रतिकूल आचरण! वह मेरा पति तो क्या, स्वयं ईश्वर भी हो, नहीं करने पावेगा।

शर्व०--क्या तू--ओ--तूँ...

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