धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लगाये कान
बलिहारी मैं, कौन तू है मेरा जीवन - प्रान
खेलता जैसे छाया - धूप।
भर नैनों में मन में रूप॥
( सहसा भीमवर्म्मा का प्रवेश )
भीम--भाभी, दुर्ग का द्वार टूट चुका है। हम अंत:पुर के बाहरी द्वार पर है। अब तुम लोग प्रस्तुत रहना।
जयमाला--उनका क्या समाचार है?
भीम--अभी कुछ नहीं मिला। गिरिसंकट में उन्होंने शत्रुओं के मार्ग को रोका था, परन्तु दूसरी शत्रु-सेना गुप्त मार्ग से आ गई। मैं जाता हूँ, सावधान!
( जाता है )
( नेपथ्य में कोलाहल, भयानक शब्द )
विजया--महारानी! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिये।
जयमाला--( छुरी निकालकर ) रक्षा करनेवाली तो पास है, डर क्या, क्यो देवसेना?
देवसेना--भाभी! श्रेष्ठि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दो।
विजया--न न न, मै लेकर क्या करूँगी, भयानक!
देवसेना--इतनी सुन्दर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने के योग्य नहीं है?
विजया---( धड़ाके का शब्द सुनकर ) ओह! तुम लोग बड़ी निर्दय हो!
जयमाला--जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ!