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प्रथम अंक
 

(अंतःपुर से क्षीण क्रंदन)

महादंडनायक--(कान लगाकर सुनते हुए) क्या सब शेष हो गया! हम अवश्य भीतर जायेंगे।

(तीनों तलवार खींच लेते हैं, नायक भी सामने आ जाता है, द्वार खोलकर पुरगुप्त और भटार्क का प्रवेश।)

पृथ्वीसेन--भटार्क! यह सब क्या है?

भटार्क--(तलवार खींचकर सिर से लगाता हुआ) परम भट्टारक राजाधिराज पुरगुप्त की जय हो! माननीय कुमारामात्य, महादंडनायक और महाप्रतिहार! साम्राज्य के नियमानुसार, शस्त्र अर्पण करके, परम भट्टारक का अभिवादन कीजिये।

(तीनों एक दूसरे का मुँह देखते है)

महाप्रतिहार--तब क्या सम्राट कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य अब संसार में नही हैं?

भटार्क--नहीं।

पृथ्वीसेन--परन्तु उत्तराधिकारी युवराज स्कंदगुप्त?

पुरगुप्त--चुप रहो। तुम लोगों को बैठकर व्यवस्था नहीं देनी होगी। उत्तराधिकार का निर्णय स्वयं स्वर्गीय सम्राट कर गये हैं।

पृथ्वीसेन--परन्तु प्रमाण?

पुरगुप्त--क्या तुम्हें प्रमाण देना होगा?

पृथ्वीसेन--अवश्य।

पुरगुप्त--महाबलाधिकृत! इन विद्रोहियों को बन्दी करो।

(भटार्क आगे बढ़ता है)

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