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[अनन्तदेवी का सुसज्जित प्रकोष्ठ]

अनन्तदेवी--जया! रात्रि का द्वितीय प्रहर तो व्यतीत हो रहा है, अभी भटार्क के आने का समय नहीं हुआ?

जया--स्वामिनी! आप बड़ा भयानक खेल खेल रही हैं।

अनन्त--क्षुद्र हृदय--जो चूहे के शब्द से भी शंकित होते हैं, जो अपनी साँस से ही चौंक उठते हैं, उनके लिये उन्नति का कंटकित मार्ग नहीं है। महत्त्वाकांक्षा का दुर्गम स्वर्ग उनके लिये स्वप्न है।

जया--परंतु राजकीय अन्तःपुर की मर्यादा बड़ी कठोर अथच फूल से कोमल है।

अनन्त॰-अपनी नियति का पथ मैं अपने पैरों चलूँगी, अपनी शिक्षा रहने दें।

(जया कपाट के समीप कान लगाती हैं, सकेत होता है, गुप्त द्वार

खुलते ही भटार्क सामने उपस्थित होता है।)

भटार्क--महादेवी की जय हो!

अनन्त॰--परिहास न करो मगध के महाबलाधिकृत! देवकी के रहते किस साहस से तुम मुझे महादेवी कहते हो?

भटार्क--हमारा हृदय कह रहा है, और आये दिन साम्राज्य की जनता, प्रजा, सभी कहेगी।

अनंत॰-–मुझे विश्वास नहीं होता।

भटार्क--महादेवी! कल सम्राट के समक्ष जो विद्रूप और व्यङ्ग-बाण मुझपर बरसाये गये है, वे अन्तस्तल मे गड़े हुए हैं। उनके निकालने का प्रयत्न नहीं करूंगा, वे ही भावी विप्लव में सहायक होंगे। चुभ-चुभकर वे मुझे सचेत करेंगे।

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