पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१६७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

[रणक्षेत्र]

(सम्राट् स्कंदगुप्त, भटार्क, चक्रपालित, पर्णदत्त, मातृगुप्त, भीमवर्म्मा इत्यादि सेना के साथ परिभ्रमण करते है।)

मातृगुप्त-- वीरो!--(गान)--

हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार

जगे हम, लगे जगाने, विश्व लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम-पुञ्ज हुआ तब नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अशोक

विमल वाणी ने वीणा ली कमल-कोमल-कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्त सिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत

बचाकर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत

सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास
पुरन्दर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरे इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह

धर्म्म का ले लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद
हम ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट दया दिखलाते घर-घर घूम

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि

किसीका हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आये थे नहीं

१६२