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पंचम अंक
 


विलम्ब हैं। किसीके पास टूटी हुई तलवार ही बची है, तो किसीके जीर्ण वस्त्र-खंड। उन सबकी सेवा इसी आश्रम में होती है।

स्कंद॰--वृद्ध पर्णदत्त, तात पर्णदत्त! तुम्हारी यह दशा? जिसके लोहे से आग बरसती थी, वह जंगल की लकड़ियाँ बटोरकर आग सुलगाता है! देवसेना! अब इसका कोई काम नहीं; चलो महादेवी की समाधि के सामने प्रतिश्रुत हों, हम तुम अब अलग न होंगे। साम्राज्य तो नहीं है, मैं बचा हूँ; वह अपना ममत्व तुम्हें अर्पित करके उऋण होऊँगा, और एकांतवास करूंगा।

देवसेना--सो न होगा सम्राट्! मैं दासी हूँ। मालव ने जो देश के लिये उत्सर्ग किया है, उसका प्रतिदान लेकर मृत आत्मा का अपमान न करूंगी। सम्राट्! देखो, यहीं पर सती जयमाला की भी छोटी-सी समाधि है, उसके गौरव की भी रक्षा होनी चाहिये।

स्कंद॰--देवसेना! बंधु बंधुवर्म्मा की भी तो यही इच्छा थी।

देवसेना--परंतु क्षमा हो सम्राट्! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे; अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्त्व को कलंकित न करूँगी। मै आजीवन दासी बनी रहूँगी; परंतु आपके प्राप्य मे भाग न लूँगी।

स्कंद॰--देवसेना! एकांत में, किसी कानन के कोने में, तुम्हे देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं—एक बार कह दो।

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