[काश्मीर]
(न्यायाधिकरण में मातृगुप्त)
(एक स्त्री और दंडनायक)
मातृगुप्त--नन्दीग्राम के दंडनायक देवनंद! यह क्या है?
देवनंद--कुमारामात्य की जय हो! बहुत परिश्रम करने पर भी मैं इस रमणी के अपहृत धन का पता न लगा सका। इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है।
मातृगुप्त--फिर किसका है? तुम गुप्तसाम्राज्य का विधान भूल गये! प्रजा की रक्षा के लिये 'कर' लिया जाता है। यदि तुम उसकी रक्षा न कर सके, तो वह अर्थ तुम्हारी भृति से कटकर इस रमणी को मिलेगा।
देवनंद--परंतु वह इतना अधिक है कि मेरे जीवन-भर की भृति से भी उसका भरना असम्भव है।
मातृगुप्त--तब राज-कोष उसे देगा, और तुम उसका फल भोगोगे।
देवनंद--परंतु मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है। यह श्रीनगर की सबसे अधिक समृद्धि-शालिनी वेश्या है। यह अपने अंतरंग लोगों का परिचय भी नहीं बताती; फिर मैं कैसे पता लगाऊँ? गुप्तचर भी थक गये।
मातृगुप्त--हाँ, इसका नाम मैं भूल गया।
देवनंद--मालिनी।
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