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तृतीय अंक
 

चर--मगध की सेना पर विश्वास करने के लिये मैं न कहूँगा। भटार्क की दृष्टि में पिशाच की मंत्रणा चल रही है। खिङ्गिल के दूत भी आ रहे हैं। चक्रपालित उस कूट-चक्र को तोड़ सकेंगे कि नहीं, इसमें सन्देह है।

स्कंद०--बंधुवर्म्मा! तुम कुभा के रणक्षेत्र की ओर जाओ, मैं यहाँ देख लूँगा।

बंधु०--राजाधिराज! मगध की सेना पर अधिकार रखना मेरे सामर्थ्य के बाहर होगा, और मालव की सेना आज नासीर में है। आज इस नदी की तीक्ष्ण धारा को लाल करके बहा देने की मेरी प्रतिज्ञा है। आज मालव का एक भी सैनिक नासीर-सेना से न हटेगा।

स्कंद॰--बंधु! यह यश मुझसे मत छीन लो।

बंधु०--परन्तु सबके प्राण देने के स्थान भिन्न है। यहाँ मालव की सेना मरेगी, दूसरे को यहाँ मरकर अधिकार जमाने का अधिकार नहीं। और बंधुवर्मा मरने-मारने में जितना पटु है, उतना षड्यंत्र तोड़ने में नहीं। आपके रहने से सौ बंधुवर्मा उत्पन्न होंगे। आप शीघ्रता कीजिये।

स्कंद॰--बंधुवर्मा! तुम बड़े कठोर हो!

बंधु०--शीघ्रता कीजिये। यहाँ हूणों को रोकना मेरा ही कर्त्तव्य है, उसे मैं ही करूँगा। महाबलाधिकृत का अधिकार मैं न छोड़ूँगा।चक्रपालित वीर है, परन्तु अभी वह नवयुवक है; आपका वहाँ पहुँचना आवश्यक है। भटार्क पर विश्वास न कीजिये।

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