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स्कंदगुप्त
 


(चक्रपालित का प्रवेश)

चक्रपालित--(देखकर) अरे, युवराज भी यहीं हैं! युवराज की जय हो।

स्कंदगुप्त--आओ चक्र! आर्य्य पर्णदत्त ने मुझे घबरा दिया है।

चक्र॰—पिताजी! प्रणाम। कैसी बात है?

पर्ण॰—कल्याण हो, आयुष्मन्! तुम्हारे युवराज अपने अधिकारो से उदासीन हैं। वे पूछते हैं 'अधिकार किस लिये।'

चक्र॰—तात! इस ‘किस लिये' का अर्थ मैं समझता हूँ।

पर्ण॰--क्या?

चक॰—गुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्तराधिकार-नियम!

स्कन्दगुप्त--चक्र, सावधान! तुम्हारे इस अनुमान का कुछ आधार भी है?

चक्र॰—युवराज! यह अनुमान नहीं है, यह प्रत्यक्ष-सिद्ध है।

पर्ण॰--(गंभीरता से) चक्र! यदि यह बात हो भी, तब भी तुमको ध्यान रखना चाहिये कि हम लोग साम्राज्य के सेवक है। असावधान बालक! अपनी चंचलता को विष-वृक्ष का बीज न बना देना।

स्कन्दगुप्त—आर्य्य पर्णदत्त! क्षमा कीजिये। हृदय की बातों को राजनीतिक भाषा में व्यक्त करना चक्र नहीं जानता।

पर्ण॰--ठीक है, किन्तु उसे इतनी शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। (देखकर) चर आ रहा है, कोई युद्ध का नया समाचार है क्या?