नाऊ की बरात के समान सब अलग-अलग ठाकुर बने टरटर ध्वनि से कान की चैलियाँ झार रहे थे । एक ओर झीगुर अलग अपनी वाचाट वक्तृता से दिमाग चाटे डालते थे। पेड़ के पत्तों पर गिरने से वर्षा के जल का टप-टप शब्द भी सुनाई देता था। कभी-कभी पेड़ पर बैठे पखेरुओं का ओदे पंख झारने का फड़फड़ शब्द कान में आता था। बारह- दुवारी भीतर-बाहर सजी और झाड़-फनूसो से आरास्ता थी; रोशनी की जगमगाहट से चकाचौधी हो रही थी, जशन की तैयारी थी । नदू, हुमा और हकीम, तीनों बैठे प्याले पर प्याला ढलका रहे थे। दोनों बावुओं की हुस्नपरस्ती में धूम थी, इसलिये तमाम लखनऊ और दिल्ली के हसीन यहाँ आ जुटे थे।
बुद्धृ पॉड़े अफीम के झोंक में ऊँघता तलवार की मुठिया हाथ में कस के गहे डेहुड़ी पर बैठा हुआ मानो वरीय रहा था-"कहाँ-कहाँ के चौपट चरन इकट्ठ भए हन, अस मन ह्वात है कि इन हरामखोरन का अपन बस चलत तो काला- पानी पठे देतेन । हाय ! यह वही बाग और बारहदुआरी अहै, जहाँ इनहिन बरसात के दिनन मा नित्य वेद-पाठ और बसत- पूजा ह्वात रही। अनेकन गुनी जनन केर भीर-की-भीर आवत' रही, और बड़े सेठ सबन केर पूजा-सम्मान करतु रहे, तहाँ अब। भाड़, भगतिए, रंडी, मुंडी पलटन-की-पलटन आय जुरे हैं। एक बार एक मुसलटा बारहदुवारी के भीतर घुस गवा रहा,