और कुछ पढ़ा-लिखा न था, न इसे कभी किसी सभ्य नमाज में शरीक होने या अच्छे सभ्य लोगों से मिलने का मौका मिला था। वेईमानी या ईमानदारी से जैसे बन पड़े केवल रुपया जमा होता चला जाय, इसी को यह बड़ी पंडिताई, बड़ी चतुराई, बड़ा धर्म समझे हुए था। इस दशा में मनुष्य को उदार भाव कहाँ से आ सकता है। न जानिए कितनों की तो इसने थाती पचा डाली थी, इन्हीं कारणों से इसके लिये अर्थपिशाच की पदवी बहुत सुघटित बोध होती है। सत्तर वर्षे का हो ही गया था एक-एक अंग पलित और जीर्ण हो चले थे, रोगग्रसित रहा करता था। अचानक एक साथ ऐसा बीमार हो गया कि विलकुल खाट से लग गया, और मालूम होता था कि दो ही एक दिन में इसका वारा-न्यारा हुआ चाहता है। इसकी बीमारी की खबर वावुओं को पहुंची। खवर पाते ही इन दोनो के जी में खलबली पड़ी। इसलिये नहीं कि बुड्ढा बीमार है. चलकर उसकी कुछ सेवा-टहल करें, या दवा-दारू की कुछ फिकर करे बल्कि इसलिये कि जल्द चलकर जो उसके पास माल-मताल है. उसे जैसे हो अपने कब्जे में लाये। चलती बार नंदू भी इनके साथ हो लिया। दोनों का चोली-दामन का साथ था भला यह क्योंकर वावुओं को छोड़ अपनी चालाकी से चूकता, और बाबू को भी इसके विना कहाँ कल पड़ सकती थी। दो-एक दिन तो धनदास बहुत ही बुरी हालत में रहा ; लोग अगुलियो घड़ी और लहमा गिन रहे थे कि इसकी
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चौदहवाँ प्रस्तावँ