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सौ अजान और एक सुजान

भरपूर परिचित हो चुके हैं, पर वह चालाकी में इसके पसंगे में भी न था । नंदू इसे चचा कहा भी करता था । सकल- गुणवरिष्ठ हकीकत में यह चचा कहलाने लायक था । नाम इसका बुद्धदास था, और जैन धर्म-पालन में अपने को बड़े- बड़े श्रावकों का भी आचार्य समझता था। साँस लेने और छोड़ने में जीव-हिंसा न हो, इसलिये रातोदिन मुंह पर ढाठा बाँधे रहता था, पर चित्त में कहीं दया का लेश भी न था। पानी चार बार छानकर था पर दूसरे की थाती समूची-की- समूची निगल जाता था डकार तक न आती थी। दिन में चार बार मंदिर में जाता था, पर मन से यही बिसूरा करता था कि किस भॉति कही से विना मेहनत, बेतरदुद, डले-का-डला रुपया हाथ लग जाय । साथ ही यह भी याद रखने लायक है कि आप निर्बसी थे ; आगे-पीछे आपके कोई न था ; कृपण इतने थे कि चार रुपए महीने में गुजर करते थे। जाहिरा में दस-पॉच रुपया पास रख घड़ी-दो घड़ी के लिये टाट बिछाय बाजार में जा बैठते थे, और पैसों की शराफी अपना पेशा प्रकट किए थे, पर छिपी आमदनी इसकी कई तरह की ऐसी थी कि उसका हाल कोई-कोई बिरले ही जानते थे। अनंतपुर में तो नदू-ऐसे दो ही एक इसके चेले थे, किंतु लखनऊ के चालाक और उस्तादों में इसकी धूम थी। भेख छिपाए दो-एक परदेशी इसके फन के मुश्ताक टिके ही रहते थे। यह अपने को कीमियागर प्रसिद्ध किए था ; पढ़ा-लिखा